Sunday, January 15, 2012

इस भरे समंदर में
चेहरों के
पहचान खोजता अपनी
किधर जा रहा हूँ मैं?

हर रहगुज़र में,
चिपक जाता है इक नया चेहरा
और फिर,
पहचान ढूंढते उसकी
भटकता हूँ इक नई रहगुज़र से I

राहों के इस भूल-भुलैया में
खो चूका अपना असली चेहरा
भूलता हुआ उसका रंग - रूप,
मैं सोचता हूँ
नोंच डालूँ उन्हें
अपने मुंह से I

पर याद आती है वह मंजिल,
जिसे पाने दूर आया हूँ इतनी,
खोकर अपना आप -
अपना परिवार I
क्या उसे पाए बिना,
सही है लौट जाना ?

नहीं SSSS
ढूँढना होगा मुझे इन्हीं राहों पर
अपने पुराने रूप को,
या एक परिष्कृत रूप को
बढ़ना होगा अनवरत मंजिल की ओर
आगे सदा I

क्योंकि
लौटने वाले को कभी,
मंजिल नहीं मिलती -
है यह शाश्वत सत्य I

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