Sunday, January 15, 2012

मैं किस अहम् को ढो रहा हूँ?
जो शायद मुझे ....
मेरी नज़रों में उठाता है
पर, न जाने कहाँ-कहाँ,
कितना नीचे तक गिराता है I

क्या सच बोलना जरूरी है?
जब वो तोड़ता हो
जोड़ने की जगह
दिलों को, रिश्तों को .. ..

किसी के लिए मेरा बोलना अच्छा है,
किसी के लिए मेरा छुपाना अच्छा
और मेरे लिए?
शायद चुप रहना अच्छा है,
न सुनना अच्छा है, ना कहना अच्छा है I

"यदि किसी के भले में - कहना सही नहीं,
तो किसी के भले में - छुपाना भी सही नहीं"
मेरी ये सोच,
मेरे कार्य को स्वीकृति देती है
यही सोच मुझे अहम् देती है I

पर ये अहम्
न जाने कहाँ - कहाँ
कितना नीचे गिराता है I
शायद मुझे ये अहम् छोड़ना होगा I

अहम् यानि मैं,
मुझे अपना आप छोड़ना होगा ?
खोना होगा अपना व्यक्तित्व ?

हाँ I चलो ऐसा करूं,
मिल जाऊं भीड़ में - खो जाऊं लहरों में I

शायद ऐसे ही,
सागर लील लेता है
गंगा की पवित्रता, अस्तित्व व गुण को
मैं तो -
एक छोटी सी जलधारा भी नहीं
-  बिंदु मात्र हूँ I

नवम्बर २००४

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