Wednesday, April 11, 2012

मुझे तो हर तरफ खुदा का नूर नज़र आता है I
मुझे तो पुतले में भी शबाब-ए-हूर नज़र आता है I
उम्र का मोड़ ये कैसा? नज़र क्या धोखा है?
हर हसीं चेहरा मुझे, अपना-सा नज़र आता है I
हर इक नज़र, अपने लिए बेताब नज़र आती है,
हर इक मुस्कान, मेरे लिए सौगात नज़र आती है I
कोई दो लफ्ज़ बोले, इश्क की बात नज़र आती है,
हर इक ज़श्न, हुश्न की रात नज़र आती है I
हर सांझ ढले बादल में चाँद नज़र आता है,
और चाँदनी में नई कायनात नज़र आती है I
जब उठा कागज - कलम बैठता हूँ, लिखने मैं,
हर नए लफ्ज़ में कविता की आगाज़ नज़र आती है I

२०/०७/२००३

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