काश, वर्षों से सबलीकरण का पर्व मनाती कोई स्त्री ये कहती कि बस हो चुका, अब मैं अबला नहीं, मुझे रोज रोज के स्त्रीवादी या यूँ कहें कि स्रिपोषक विचारधारा की जरुरत नहीं। या ये कहती कि अब हमें पुरुष - पूर्वज द्वारा स्त्री- पूर्वजों पर हुए कथित अत्याचार की दुहाई नहीं चाहिए। और तदनुरूप अपने को सबल विकसित और उन्नत मानती। पर, आह, ऐसा कोई दिन न आया न आएगा, अतः स्त्रियों का संरक्षण, आरक्षण और सबलीकरण जारी रखें, और ऐसे महिला दिवस का झुनझुना बजाते रहें। इस पर्व की बधाइयाँ दे दे कर अहसास कराते रहें कि वो आज भी अब भी कमजोर हैं, अबला हैं, असक्षम हैं, अपूर्ण हैं और स्त्रीगण कृपया आप इस पर्व को अपनी मानसिक परतंत्रता ही समझें।
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