Thursday, March 18, 2010

किकर्ताव्यविमूढ़ युवा

मैं एक युवा,
और मेरी युवा चाह -
कि कुछ बनूँ,
कि कुछ करूँ ,
ऐसा -
जिससे नाम हो मेरा,
लोग पहचाने मुझे
मेरे नाम से,
मेरे काम से,
एक अलग रूप में I


किन्तु,
प्रश्न उठता है
मेरे भीतर कहीं,
क्या यह संभव होगा
इस भीड़ में 
एक अलग पहचान बनाना
अपनी,
इस जहान में,
नहीं, सिर्फ इस देश में,
शायद नहीं,
सिर्फ स्थानीय समाज में
शायद वो भी नहीं,
सिर्फ मेरे अपने ख़ानदान में ?


और मैं सीमित होता जाता हूँ
जहान से -
अपने परिवार में I
और चाहता हूँ,
कुछ ऐसा करना,
जो सारे जहान के लिए नहीं -
शायद सारे देश के लिए भी नहीं -
शायद इस समाज के लिए भी नहीं -
सिर्फ 
मेरे परिवार के लिए
रखता हो
एक विशिष्ट महत्व I


किन्तु,
चाह का दायरा,
जिस तरह
लघुतर रूप धरता हुआ,
प्रकट होता है मेरे सामने -
मेरे कर्म भी
घटते जाते हैं
महत्व में, 
उसी तरह I


क्योंकि मेरा लक्ष्य ही 
क्षीण होता जाता है I
और करता जाता है क्षीण,
मेरे भीतर सुलगती
कर्म करने कि
उत्कट लालसा को I


अंत में,
मेरा सम्पूर्ण जीवन
हो जाता है महत्वहीन,
महत्वहीन - सारे विश्व के लिए,
महत्वहीन - सारे देश के लिए,
महत्वहीन - सारे समाज के लिए,
और शायद,
महत्वहीन - मेरे परिवार के लिए भी I


रह जाता है इसका महत्व,
सिर्फ मेरे लिए,
एक अंतिम सीख के रूप में I


और शायद,
उन नव - युवाओं के लिए
एक शिक्षा के रूप में,
जो बढना चाहते हैं
नव - निर्माण के पथ पर
निरंतर
इस सृष्टि में
एक लक्ष्य को पाने के लिए I



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