वो लालिमा,
अस्त होते सूर्य की,
इस शाम में
बरखा के बाद,
देती है आभाष
भूमि के शीश पर
डाले गए सिन्दूर का ।
धरती लगती है
खिली - खिली
सुहाग - सेज पर बैठी
दुल्हन की तरह ।
घोंसलों में लौटते
पंछियों का कलरव
प्रतीत होता है,
दुल्हन की सखियों की
मीठी चुहलबाजी सा ।
उमड़ते - घुमड़ते काले बादल
लगते हैं,
घुंघराली लटें,
जिनमें चमकती दामिनियाँ
गयीं हो पिरोयीं
चमकीली लड़ियों की जगह ।
और, इन्द्रधनुष
जान पड़ता है,
सतरंगे फूलों के गजरे - सा ।
इन्हें देख -
मन करता है,
भर लूँ इस नज़ारे को
अपनी आंखों में
सदा के लिए ।
लिखूं कोई कविता रसमयी
इनके वर्णन में
या फिर,
उतार लूँ हृदय में
चित्र की भांति ।
क्योंकि,
ये सौंदर्य प्राकृतिक
कल्पना नहीं, यथार्थता है -
कल्पना से भी सुंदर
सजीव -- मूर्त - - प्रत्यक्ष,
मेरे सामने ।
4 comments:
अच्छी रचना बधाई।
... सुन्दर रचना !!!
घोंसलों में लौटते
पंछियों का कलरव
प्रतीत होता है,
दुल्हन की सखियों की
मीठी चुहलबाजी सा ।
.. सुंदर चित्रण।
nice poem!!
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