Saturday, June 26, 2010

बे - शऊर शे'र

ज़न्नत में इश्क का खुदा नहीं रहता,
वर्ना क्या वो हमारा पासबाँ नहीं बनता I

उनके शऊर का क्या कहना,
घायल को पता नहीं, जख्म कहाँ, दर्द कहाँ I

फख्र होता है उस समाज पर,
दिलों के टूटने का जहाँ मलाल नहीं I

प्यार के इम्तिहान में अक्सर,
प्यार को भुलाने का सवाल रहता है I

ख़ामख्वाह याद आती है वह बार-बार,
जब दिल को हो किस्मत से ही सरोकार I

जब रोए हम,  बुतों के भी आंसू टपके,
उन मदभरी आँखों ने कहा हम बुत नहीं I


मेरे दिल की  यूँ दर्द भरी आवाज़ न होती,
काश इस जहां में इश्क की आगाज़ न होती I

सितम की आरजू ही जब हो मोहब्बत की इब्तिदा,
इन्तहा में धड़ से रूह जुदा दिल भी जुदा I

मेरे इश्क के खरीदारों लाओ अश्के जिगर अपना,
दौलत के खजाने पर न बेंचू मैं जिगर अपना I

कब्रे दिल पर मेरे, गर वे ज़लायें चिराग,
जमीं पर बन उठे, मेरा ज़न्नत फ़राक I

ऐ खुदा अगर कातिल को मेरे दे सजा,
बस दिले-पत्थर उसका पिघला मोम-सा I

अश्कों से आशिकी कर ली,
हमने जो दिल-लगी कर ली I

आशिकी के ज़ज्बे में इतने अदू बने,
अश्क बहाने को इक यार न मिला I

शब गुज़र गयी, शमां न बुझी,
शमां के सहारे, कज़ा गुज़र गई I

हुस्न - परस्तों ने अश्क इतने बहाए हैं,
आशिक भी अब अश्क- परस्त कहाए हैं I

याद करना भी मुझे, शायद तुझे गंवारा न था,
तेरी ग़ज़ल में इसलिए, मेरा जिक्र आया न था I

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