Monday, December 7, 2009

प्रकृति : दुल्हन

वो लालिमा,
अस्त होते सूर्य की,
इस शाम में
बरखा के बाद,
देती है आभाष
भूमि के शीश पर
डाले गए सिन्दूर का ।


धरती लगती है
खिली - खिली
सुहाग - सेज पर बैठी
दुल्हन की तरह ।


घोंसलों में लौटते
पंछियों का कलरव
प्रतीत होता है,
दुल्हन की सखियों की
मीठी चुहलबाजी सा ।



उमड़ते - घुमड़ते काले बादल
लगते हैं,
घुंघराली लटें,
जिनमें चमकती दामिनियाँ
गयीं हो पिरोयीं
चमकीली लड़ियों की जगह ।


और, इन्द्रधनुष
जान पड़ता है,
सतरंगे फूलों के गजरे - सा ।

इन्हें देख -
मन करता है,
भर लूँ इस नज़ारे को
अपनी आंखों में
सदा के लिए ।

लिखूं कोई कविता रसमयी
इनके वर्णन में
या फिर,
उतार लूँ हृदय में
चित्र की भांति ।


क्योंकि,
ये सौंदर्य प्राकृतिक
कल्पना नहीं, यथार्थता है -
कल्पना से भी सुंदर
सजीव -- मूर्त - - प्रत्यक्ष,
मेरे सामने ।

4 comments:

मनोज कुमार said...

अच्छी रचना बधाई।

कडुवासच said...

... सुन्दर रचना !!!

देवेन्द्र पाण्डेय said...

घोंसलों में लौटते
पंछियों का कलरव
प्रतीत होता है,
दुल्हन की सखियों की
मीठी चुहलबाजी सा ।
.. सुंदर च‍ित्रण।

Anonymous said...

nice poem!!